Saturday, October 31, 2009

अब तो घबरा के ये कहते हैं के मर जायेंगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जायेंगे

तुम ने ठहराई अगर गैर के घर जाने की
तो इरादे यहाँ कुछ और ठहर जायेंगे

हम नहीं वो जो करें खून का दावा तुझ पर
बल्कि पूछेगा खुदा भी तो मुकर जायेंगे

आग दोज़ख की भी हो जायेगी पानी पानी
जब ये आसी अर्क-ए-शर्म से तर जायेंगे

शोला-ए-आह को बिजली की तरह चमकाऊँ
पर मुझे दर है , की वो देख कर दर जायेंगे

लाये जो मस्त हैं तुर्बत पे गुलाबी आँखें
और अगर कुछ नहीं , दो फूल तो धर जायेंगे

नहीं पायेगा निशाँ कोई हमारा हरगिज़
हम जहां से रविश-ए-तीर-ए-नज़र जायेंगे

पहुंचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक हम क्यूँ कर
पहले जब तक न दो आलम से गुज़र जायेंगे

जो मदरसे के बिगडे हुए हैं मुल्लाह
उनको मैखाने में ले आओ संवर जायेंगे

Tuesday, October 27, 2009

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार -

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार


आज सिन्धु ने विष उगला है

लहरों का यौवन मचला है

आज ह्रदय में और सिन्धु में

साथ उठा है ज्वार


तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार


लहरों के स्वर में कुछ बोलो

इस अंधड में साहस तोलो

कभी-कभी मिलता जीवन में

तूफानों का प्यार


तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार


यह असीम, निज सीमा जाने

सागर भी तो यह पहचाने

मिट्टी के पुतले मानव ने

कभी ना मानी हार


तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार


सागर की अपनी क्षमता है

पर माँझी भी कब थकता है

जब तक साँसों में स्पन्दन है

उसका हाथ नहीं रुकता है

इसके ही बल पर कर डाले

सातों सागर पार


तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।।

शिवमंगल सिंह सुमन


सर फरोशी की तमन्ना--

सर फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।

करता नहीं क्यूं दूसरा कुछ बात चीत
देखता हूं मैं जिसे वो चुप तिरी मेहफ़िल में है।

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।

वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है।

खींच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उम्मीद
आशिक़ों का आज झमघट कूचा-ए-क़ातिल में है।

है लिए हथियार दुश्मन ताक़ में बैठा उधर
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है।

हाथ जिन में हो जुनून कटते नहीं तलवार से
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से
और भड़केगा जो शोला सा हमारे दिल में है।

हम तो घर से निकले ही थे बांध कर सर पे क़फ़न
जान हथेली पर लिए लो बढ चले हैं ये क़दम
ज़िंदगी तो अपनी मेहमाँ मौत की महफ़िल में है।

दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इंक़िलाब
होश दुशमन के उड़ा देंगे हमें रोको ना आज
दूर रह पाए जो हम से दम कहां मंज़िल में है।

यूं खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार बार
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है
-रामप्रसाद बिस्मिल



The poem is written as an ode to the young freedom fighters of the Indian Independence Movement

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The desire for sacrifice is now in our hearts
We shall now see what strength there is in the boughs of the enemy.

Why do you remain silent thus?
Whoever I see, is gathered quiet so...
O martyr of country, of nation, I submit myself to thee
For yet even the enemy speaks of thy courage
The desire for struggle is in our hearts...

When the time comes, we shall show thee, O heaven
For why should we tell thee now, what lurks in our hearts?
We have been dragged to service, by the hope of blood, of vengeance
Yea, by our love for nation divine, we go to the streets of the enemy
The desire for struggle is in our hearts...

Armed does the enemy sit, ready to open fire
Ready too are we, our bosoms thrust out to him
With blood we shall play Holi, if our nation need us
The desire for struggle is in our hearts...

No sword can sever hands that have the heat of battle within,
No threat can bow heads that have risen so...
Yea, for in our insides has risen a flame,
and the desire for struggle is in our hearts...

Set we out from our homes, our heads shrouded with cloth,
Taking our lives in our hands, do we march so...
In our assembly of death, life is now but a guest
The desire for struggle is in our hearts...

Stands the enemy in the gallows thus, asking,
Does anyone wish to be sacrificed?...
With a host of storms in our heart, and with revolution in our breath,
We shall knock the enemy cold, and no one shall stop us...

What good is a body that does not have passionate blood,
How can one conquer a storm while in a shored boat.

The desire for struggle is in our hearts,
We shall now see what strength there is in the boughs of the enemy.

close to my heart [कोई दीवाना कहता है ]

कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है !
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !!
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है !
ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !!

मोहब्बत एक एहसासों की पावन सी कहानी है !
कभी कबीरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !!
यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं !
जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !!

समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नही सकता !
यह आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नही सकता !!
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना, मगर सुन ले !
जो मेरा हो नही पाया, वो तेरा हो नही सकता !!

भ्रमर कोई कुमुदुनी पर मचल बैठा तो हंगामा!
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा!!
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का!
मैं किस्से को हकीक़त में बदल बैठा तो हंगामा!!

-कुमार विश्वास

Monday, October 26, 2009

एक फूल की चाह -- i just love this poem

एक फूल की चाह

उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ,
हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचण्ड हो
फैल रही थी इधर उधर।
क्षीण-कण्ठ मृतवत्साओं का
करुण-रुदन दुर्दान्त नितान्त,
भरे हुए था निज कृश रव में
हाहाकार अपार अशान्त।
बहुत रोकता था सुखिया को
'न जा खेलने को बाहर',
नहीं खेलना रुकता उसका
नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय काँप उठता था,
बाहर गई निहार उसे;
यही मानता था कि बचा लूँ
किसी भांति इस बार उसे।
भीतर जो डर रहा छिपाये,
हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
ताप-तप्त मैंने पाया।
ज्वर से विह्वल हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर से डर -
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।

बेटी, बतला तो तू मुझको
किसने तुझे बताया यह;
किसके द्वारा, कैसे तूने
भाव अचानक पाया यह?
मैं अछूत हूँ, मुझे कौन हा!
मन्दिर में जाने देगा;
देवी का प्रसाद ही मुझको
कौन यहाँ लाने देगा?
बार बार, फिर फिर, तेरा हठ!
पूरा इसे करूँ कैसे;
किससे कहे कौन बतलावे,
धीरज हाय! धरूँ कैसे?
कोमल कुसुम समान देह हा!
हुई तप्त अंगार-मयी;
प्रति पल बढ़ती ही जाती है
विपुल वेदना, व्यथा नई।
मैंने कई फूल ला लाकर
रक्खे उसकी खटिया पर;
सोचा - शान्त करूँ मैं उसको,
किसी तरह तो बहला कर।
तोड़-मोड़ वे फूल फेंक सब
बोल उठी वह चिल्ला कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर!

क्रमश: कण्ठ क्षीण हो आया,
शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की
चिन्ता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से
हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा,
कब आई सन्ध्या गहरी।
सभी ओर दिखलाई दी बस,
अन्धकार की छाया गहरी।
छोटी-सी बच्ची को ग्रसने
कितना बड़ा तिमिर आया!
ऊपर विस्तृत महाकाश में
जलते-से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थी आँखें
जगमग जगते तारों से।
देख रहा था - जो सुस्थिर हो
नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! बही चुपचाप पड़ी थी
अटल शान्ति-सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं
उसे स्वयं ही उकसा कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर!

हे मात:, हे शिवे, अम्बिके,
तप्त ताप यह शान्त करो;
निरपराध छोटी बच्ची यह,
हाय! न मुझसे इसे हरो!
काली कान्ति पड़ गई इसकी,
हँसी न जाने गई कहाँ,
अटक रहे हैं प्राण क्षीण तर
साँसों में ही हाय यहाँ!
अरी निष्ठुरे, बढ़ी हुई ही
है यदि तेरी तृषा नितान्त,
तो कर ले तू उसे इसी क्षण
मेरे इस जीवन से शान्त!
मैं अछूत हूँ तो क्या मेरी
विनती भी है हाय! अपूत,
उससे भी क्या लग जावेगी
तेरे श्री-मन्दिर को छूत?
किसे ज्ञात, मेरी विनती वह
पहुँची अथवा नहीं वहाँ,
उस अपार सागर का दीखा
पार न मुझको कहीं वहाँ।
अरी रात, क्या अक्ष्यता का
पट्टा लेकर आई तू,
आकर अखिल विश्व के ऊपर
प्रलय-घटा सी छाई तू!
पग भर भी न बढ़ी आगे तू
डट कर बैठ गई ऐसी,
क्या न अरुण-आभा जागेगी,
सहसा आज विकृति कैसी!
युग के युग-से बीत गये हैं,
तू ज्यों की त्यों है लेटी,
पड़ी एक करवट कब से तू,
बोल, बोल, कुछ तो बेटी!
वह चुप थी, पर गूँज रही थी
उसकी गिरा गगन-भर भर -
'मुझको देवी के प्रसाद का -
एक फूल तुम दो लाकर!'

"कुछ हो देवी के प्रसाद का
एक फूल तो लाऊँगा;
हो तो प्रात:काल, शीघ्र ही
मन्दिर को मैं जाऊँगा।
तुझ पर देवी की छाया है
और इष्ट है यही तुझे;
देखूँ देवी के मन्दिर में
रोक सकेगा कौन मुझे।"
मेरे इस निश्चल निश्चय ने
झट-से हृदय किया हलका;
ऊपर देखा - अरुण राग से
रंजित भाल नभस्थल का!
झड़-सी गई तारकावलि थी
म्लान और निष्प्रभ होकर;
निकल पड़े थे खग नीड़ों से
मानों सुध-बुध सी खो कर।
रस्सी डोल हाथ में लेकर
निकट कुएँ पर जा जल खींच,
मैंने स्नान किया शीतल हो,
सलिल-सुधा से तनु को सींच।
उज्वल वस्र पहन घर आकर
अशुचि ग्लानि सब धो डाली।
चन्दन-पुष्प-कपूर-धूप से
सजली पूजा की थाली।
सुकिया के सिरहाने जाकर
मैं धीरे से खड़ा हुआ।
आँखें झँपी हुई थीं, मुख भी
मुरझा-सा था पड़ा हुआ।
मैंने चाहा - उसे चुम लें,
किन्तु अशुचिता से डर कर
अपने वस्त्र सँभाल, सिकुड़कर
खड़ा रहा कुछ दूरी पर।
वह कुछ कुछ मुसकाई सहसा,
जाने किन स्वप्नों में लग्न,
उसकी वह मुसकाहट भी हा!
कर न सकी मुझको मुद-मग्न।
अक्षम मुझे समझकर क्या तू
हँसी कर रही है मेरी?
बेटी, जाता हूँ मन्दिर में
आज्ञा यही समझ तेरी।
उसने नहीं कहा कुछ, मैं ही
बोल उठा तब धीरज धर -
तुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल तो दूँ लाकर!
ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर
मन्दिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे
पाकर समुदित रवि-कर-जाल।
परिक्रमा-सी कर मन्दिर की,
ऊपर से आकर झर झर,
वहाँ एक झरना झरता था
कल कल मधुर गान कर कर।
पुष्प-हार-सा जँचता था वह
मन्दिर के श्री चरणों में,
त्रुटि न दिखती थी भीतर भी
पूजा के उपकरणों में।
दीप-दूध से आमोदित था
मन्दिर का आंगन सारा;
गूँज रही थी भीतर-बाहर
मुखरित उत्सव की धारा।
भक्त-वृन्द मृदु-मधुर कण्ठ से
गाते थे सभक्ति मुद-मय -
"पतित-तारिणि पाप-हारिणी,
माता, तेरी जय-जय-जय!"
"पतित-तारिणी, तेरी जय-जय" -
मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
जानें किस बल से ढिकला!
माता, तू इतनी सुन्दर है,
नहीं जानता था मैं यह;
माँ के पास रोक बच्चों की,
कैसी विधी यह तू ही कह?
आज स्वयं अपने निदेश से
तूने मुझे बुलाया है;
तभी आज पापी अछूत यह
श्री-चरणों तक आया है।
मेरे दीप-फूल लेकर वे
अम्बा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा - बेटी को माँ के ये
पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।

सिंह पौर तक भी आंगन से
नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि - "कैसे
यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो, देखो भाग न जावे,
बना धूर्त यह है कैसा;
साफ-स्वच्छ परिधान किये है,
भले मानुषों जैसा!
पापी ने मन्दिर में घुसकर
किया अनर्थ बड़ा भारी;
कुलषित कर दी है मनिदर की
चिरकालिक शुचिता सारी।"
ए, क्या मेरा कलुष बड़ा है
देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे
माता की महिमा से भी?
माँ के भक्त हुए तुम कैसे,
करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम
गौरव करते हो छोटा!
कुछ न सुना भक्तों ने, झट से
मुझे घेर कर पकड़ लिया;
मार मार कर मुक्के-घूँसे
धम-से नीचे गिरा दिया!
मेरे हाथों से प्रसाद भी
बिखर गया हा! सब का सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक
कैसे पहुँच सके यह अब।
मैंने उनसे कहा - दण्ड दो
मुझे मार कर, ठुकरा कर,
बस यह एक फूल कोई भी
दो बच्ची को ले जाकर।

न्यायालय ले गये मुझे वे
सात दिवस का दण्ड-विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे
देवी का महान अपमान!
मैंने स्वीकृत किया दण्ड वह
शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग, दोष का
क्या उत्तर देता; क्या कह?
सात रोज ही रहा जेल में
या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविस्श्रान्त बरसा करके भी
आँखें तनिक नहीं रीतीं।
कैदी कहते - "अरे मूर्ख, क्यों
ममता थी मन्दिर पर ही?
पास वहाँ मसजिद भी तो थी
दूर न था गिरिजाघर भी।"
कैसे उनको समझाता मैं,
वहाँ गया था क्या सुख से;
देवी का प्रसाद चाहा था
बेटी ने अपने मुख से।

दण्ड भोग कर जब मैं छूटा,
पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई
भय-जर्जर तनु पंजर को।
पहले की-सी लेने मुझको
नहीं दौड़ कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा!
अबकी दी न दिखाई वह।
उसे देखने मरघट को ही
गया दौड़ता हुआ वहाँ -
मेरे परिचित बन्धु प्रथम ही
फूँक चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची
हुई राख की थी ढेरी!
अन्तिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हाय!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
तुझको दे न सका मैं हा!
वह प्रसाद देकर ही तुझको
जेल न जा सकता था क्या?
तनिक ठहर ही सब जन्मों के
दण्ड न पा सकता था क्या?
बेटी की छोटी इच्छा वह
कहीं पूर्ण मैं कर देता
तो क्या अरे दैव, त्रिभुवन का
सभी विभव मैं हर लेता?
यहीं चिता पर धर दूँगा मैं,
- कोई अरे सुनो, वर दो -
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही लाकर दो!

- सियाराम शरण गुप्त